हिन्दी साहित्य का इतिहास
हिंदी साहित्य का आरंभ आठवीं शताब्दी से माना जाता है। यह वह समय है जब सम्राट् हर्ष की मृत्यु के बाद देश में अनेक छोटे-छोटे शासन केंद्र स्थापित हो गए थे जो परस्पर संघर्षरत रहा करते थे। विदेशी मुसलमानों से भी इनकी टक्कर होती रहती थी। हिन्दी साहित्य के विकास को आलोचक सुविधा के लिये पाँच ऐतिहासिक चरणों में विभाजित कर देखते हैं, जो क्रमवार निम्नलिखित हैं:-
- आदिकाल (१४०० ईसवी से पहले)
- भक्ति काल (१३७५-१७००)
- रीति काल (१७००-१९००)
- आधुनिक काल (१८५० ईस्वी के पश्चात)
- नव्योत्तर काल (१९८० ईस्वी के पश्चात)
आदिकाल (१०५० ईसवी से १३७५ ईसवी)
हिन्दी साहित्य आदिकालको आलोचक १४०० ईसवी से पूर्व का काल मानते हैं जब हिन्दी का उद्भव हो ही रहा था। हिन्दी की विकास-यात्रा दिल्ली, कन्नौज और अजमेर क्षेत्रों में हुई मानी जाती है। पृथ्वीराज चौहान का उस समय दिल्ली में शासन था और चंदबरदाई नामक उसका एक दरबारी कविहुआ करता था। चंदबरदाई की रचना 'पृथ्वीराजरासो' है, जिसमें उन्होंने अपने मित्र पृथ्वीराज की जीवन गाथा कही है। 'पृथ्वीराज रासो' हिंदी साहित्य में सबसे बृहत् रचना मानी गई है। कन्नौज का अंतिम राठौड़ शासक जयचंद था जो संस्कृतका बहुत बड़ा संरक्षक था।
भक्ति काल (१३७५ – १७००)
हिन्दी साहित्य का भक्ति काल १३७५ वि0 से १७०० वि0 तक माना जाता है। यह काल प्रमुख रूप से भक्ति भावना से ओतप्रोत काल है। इस काल को समृद्ध बनाने वाली दो काव्य-धाराएं हैं -1.निर्गुण भक्तिधारा तथा 2.सगुण भक्तिधारा। निर्गुण भक्तिधारा को आगे दो हिस्सों में बांटा जा सकता है, संत काव्य (जिसे ज्ञानाश्रयी शाखा के रूप में जाना जाता है,इस शाखा के प्रमुख कवि , कबीर, नानक, दादूदयाल, रैदास, मलूकदास, सुन्दरदास, धर्मदास[1] आदि हैं।
निर्गुण भक्तिधारा का दूसरा हिस्सा सूफी काव्य का है। इसे प्रेमाश्रयी शाखा भी कहा जाता है। इस शाखा के प्रमुख कवि हैं- मलिक मोहम्मद जायसी, कुतुबन, मंझन, शेख नबी, कासिम शाह, नूर मोहम्मद आदि।
भक्तिकाल की दूसरी धारा को सगुण भक्ति धारा के रूप में जाना जाता है। सगुण भक्तिधारा दो शाखाओं में विभक्त है- रामाश्रयी शाखा, तथा कृष्णाश्रयी शाखा। रामाश्रयी शाखा के प्रमुख कवि हैं- तुलसीदास, अग्रदास, नाभादास, केशवदास, हृदयराम, प्राणचंद चौहान, महाराज विश्वनाथ सिंह, रघुनाथ सिंह।
कृष्णाश्रयी शाखा के प्रमुख कवि हैं- सूरदास, नंददास, कुम्भनदास, छीतस्वामी, गोविन्द स्वामी, चतुर्भुज दास, कृष्णदास, मीरा, रसखान, रहीम आदि। चार प्रमुख कवि जो अपनी-अपनी धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये कवि हैं (क्रमशः)
कबीरदास (१३९९)-(१५१८)
मलिक मोहम्मद जायसी (१४७७-१५४२)
सूरदास (१४७८-१५८०)
तुलसीदास (१५३२-१६०२)
रीति काल (१७००-१९००) आचार्य राम चन्द्र शुक्ल के अनुसार -
हिंदी साहित्य का रीति काल संवत १७०० से १९०० तक माना जाता है यानी १६४३ई० से १८४३ई० तक। रीति का अर्थ है बना बनाया रास्ता या बंधी-बंधाई परिपाटी। इस काल को रीतिकाल कहा गया क्योंकि इस काल में अधिकांश कवियों ने श्रृंगार वर्णन, अलंकार प्रयोग, छंद बद्धता आदि के बंधे रास्ते की ही कविता की। हालांकि घनानंद, बोधा, ठाकुर, गोबिंद सिंह जैसे रीति-मुक्त कवियों ने अपनी रचना के विषय मुक्त रखे।
केशव (१५४६-१६१८), बिहारी (१६०३-१६६४), भूषण(१६१३-१७०५), मतिराम, घनानन्द , सेनापति आदि इस युग के प्रमुख रचनाकार रहे।
आधुनिक काल (१८५० ईस्वी के पश्चात)
आधुनिक काल हिंदी साहित्य पिछली दो सदियों में विकास के अनेक पड़ावों से गुज़रा है। जिसमें गद्य तथा पद्य में अलग अलग विचार धाराओं का विकास हुआ। जहां काव्य में इसे छायावादी युग, प्रगतिवादी युग, प्रयोगवादी युग और यथार्थवादी युग इन चार नामों से जाना गया, वहीं गद्य में इसको, भारतेंदु युग, द्विवेदी युग, रामचंद शुक्ल व प्रेमचंद युगतथा अद्यतन युग का नाम दिया गया।
अद्यतन युग के गद्य साहित्य में अनेक ऐसी साहित्यिक विधाओं का विकास हुआ जो पहले या तो थीं ही नहीं या फिर इतनी विकसित नहीं थीं कि उनको साहित्य की एक अलग विधा का नाम दिया जा सके। जैसे डायरी, यात्रा विवरण, आत्मकथा, रूपक, रेडियो नाटक, पटकथा लेखन, फ़िल्म आलेख इत्यादि.
नव्योत्तर काल (१९८० ईस्वी के पश्चात)
नव्योत्तर काल की कई धाराएं हैं - एक, पश्चिम की नकल को छोड़ एक अपनी वाणी पाना; दो, अतिशय अलंकार से परे सरलता पाना; तीन, जीवन और समाज के प्रश्नों पर असंदिग्ध विमर्श।
कंप्यूटर के आम प्रयोग में आने के साथ साथ हिंदी में कंप्यूटर से जुड़ी नई विधाओं का भी समावेश हुआ है, जैसे- चिट्ठालेखन और जालघर की रचनाएं। हिन्दी में अनेक स्तरीय हिंदी चिट्ठे, जालघर व जाल पत्रिकायें हैं। यह कंप्यूटरसाहित्य केवल भारत में ही नहीं अपितु विश्व के हर कोने से लिखा
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ReplyDeleteThank you